बुधवार, 29 सितंबर 2010

हो-हल्ला से हल नहीं

अयोध्या के फैसले की कोई भी प्रतिक्रिया ठीक नहीं


अभी से करीब 24 घंटे के अंदर यानि कल 3.30 बजे ईलाहाबाद उच्च-न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ एक ऐतिबहासिक फैसला सुनाने जा रही है। फैसले में अदालत यह तय करेगी कि रामजन्भूमि-बाबरीमस्जिद पर मलिकाना हक किसका है, हिंदुओं का या मुसलमानों का? क्या वहाँ मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी? क्या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाना शरिया के खिलाफ है? इन प्रमुख सवालों के अतिरिक्त कई ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब कोर्ट के फैसले में तय होना है। इन सवालों से बेशक हिन्दुस्तान का हर शख्स इत्तेफाक रखता है चाहे वह हिंदु हो, मुसलमान हो, ईसाई हो या कोई अन्य पूजा पद्धति को मानता हो। जाहिर है, फैसले का इंतजार भी बेसब्री से होगा। इसलिए, आम जन से यह आशा करना कि वह फैसले से मोह छोड़ दे, काल्पनिक है।





सुरक्षा-व्यवस्था चाक-चैबंद हो, अफवाह फैलाने वालों से कड़ाई से निपटा जाए, विस्फोटक खबरों को दबा दिया जाए। ऐसी कुछ सावधानियाँ काम आ सकती हैं, लेकिन सबसे जरूरी बात है कि लोगों के मन में हिंसा के प्रति घृणा और मानव मात्र से प्रेम की भावना विकसित हो जो हमेशा के लिए हर इस तरह की चिंता से मुक्त कर दे जिसके भय से सरकार को इतनी चुस्ती दिखानी पड़ रही है। हो सकता है कि फैसले एक नहीं कई हों, जैसा कि गृहमंत्री आशंका जता चुके हैं। जो भी हो, फैसला तो कोर्ट के हाथों में है और हमारा काम खुशी-खुशी उसका स्वागत करना है। इससे न्यायालय की मर्यादा भी बनी रहेगी और शांति भी। असंतोष की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा तो सबके लिए खुला है।



अब जरा बात कट्टरपंथियों के कारनामों की, तो इतिहास गवाह है कि सांप्रदायिक हिंसा का अंतिम परिणाम दोनों ही पक्षों के लिए दुखदायी ही रहा है। यह बात स्थापित होनी जरूरी है कि यह कोई युद्ध नहीं जिसमें शहीद होना वीरगति को प्राप्त होना है और विजय पाना धर्म का काम है। क्योंकि, इसमें दोनो तरफ लड़ने वाले भगवान के नाम पर लड़ते हैं और खून के प्यासे कुछ भी गलत करने पर उतारू होते हैं। स्लाम के आक्रमण के समय देश की स्थितियाँ कुछ और थीं। मंदिर तोड़कर मस्जिद बनना या मस्जिद के समान ढाँचे को तोड़ देना इतिहास की भूलें हो सकती हैं। इक्कसवीं सदी में भी इन सब बातों को लेकर बैठे रहना और भविष्य को अंधकार में ढकेलना भारी भूल होगी। अब तो अर्थ का युग है। चीन जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को टक्कर देना है। अमेरिका के वर्चस्ववादी राजनीति में स्वयं को मजबूती से खड़ा करना है। कोर्ट के फैसले को अपनी आन से जोड़ना जायज नहीं। इससे अंतत: देश का ही नुकसान होगा।





हिंदुओं से अपील है कि बुद्ध- महावीर के इस देश में उनके सिंद्धंतों को तार-तार न होने दें और शांति, अहिंसा को कायम रखें। मुसलमान भाइयों से गुजारिश है कि अब दारुल-इस्लाम और दारुल हर्ब की बात न कर शांतिपूर्वक कोर्ठ का सम्मान करें। सुप्रीम कोर्ट का रास्ता तो सबके लिए खुला ही है। एक बात राहत देने वाली है कि इस बार सभी धर्मों के संतो महात्माओं, गुरुओं , मौलवियों ने शांति की अपील की है तथा भरुपूर साथ देने का वादा किया है। प्रशासन भी काफी चुस्त दुरुस्त है। मैं फिर से भगवान से और आप सब से शांति की कामना करता हूँ।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

ये कैसे न्यायाधीश

न्यायाधीश शब्द का अर्थ ही होता है- न्याय का देवता, मालिक। इस घोर कलयुग में हालत ये है कि ये देवता भी.........................। कल ख़बर मिली कि एक पूर्व कानून मंत्री ने खुलासा किया है कि अब तक देश में सोलह मुख्य न्यायाधीशों में आठ भ्रष्ट रहे हैं। ये कोई खबर नहीं है। पहले भी एक मुख्य न्यायाधीश ये कह चुके हैं कि करीब 30 फीसदी जजों के लैपटाप में हर मामले के दो-दो फैसले पाए गए। जिधर से रिश्वत की पेशकश हो जाती, उसी के पक्ष में फैसला सुना दिया जाता। न्यायपालिका का ये हाल। लानत है।