शनिवार, 30 जुलाई 2011

व्यवस्था पर सवाल खड़े कर गई नवजात की मौत!

 
  -प्रसूता को पिक-अप वैन में लादकर अस्पताल लाया गया
  -गांव और आस-पास नहीं थी व्यवस्था


बिलासपुर. ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की लचर व्यवस्था का कितना बड़ा खामियाजा ग्रामीणों को भुगतना  पड़ता है, इसका एक ताजा उदाहरण बिलासपुर जिला अस्पताल में देखने को मिला. जिला मुख्यालय से करीब 18 कि लोमीटर दूर के एक गांव में रहने वाली  महिला को प्रसव पीड़ा शुरु होने के दूसरे दिन पिकअप वैन पर लादकर अस्पताल लाना पड़ा,  जहाँ इलाज दौरान ही उसके बच्चे की मौत हो गई. प्रसूता का अभी तक  अस्पताल में ईलाज चल रहा है.

बिलासपुर जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर दूर स्थित गांव मगरउछला निवासी फिरतूराम की पत्नी तीजनबाई(30) को 29 जुलाई शुक्रवार की रात प्रसव-पीड़ा शुरु हुई. गांव की पारंपरिक दाईयों के देख-रेख में उसका प्रसव कराया जाने लगा पर बच्चे का पूरा शरीर बाहर नहीं आ पाने के  कारण प्रसव अधूरा रह गया. शनिवार को सुबह 10 बजे तक गांववालों के सहयोग से पिकअप वैन की व्यवस्था हो पाई. वहाँ से उसी पिकअप वैन में  कराहती प्रसूता को लादकर उसका देवर लेखराम व सास भावना  बाई गांव की तीन दाईयों के साथ जिला अस्पताल पहुँची. दोपहर करीब 12 बजे मरीज को भर्ती कराया जा सका. इसके कुछ घंटे बाद डॉक्टरों ने नवजात को मृत घोषित कर दिया. मृत बच्चे का वजन 4 किलोग्राम बताया गया.


प्रसूता के साथ आए गांव के लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि मरीज के पति फिरतूराम का हाथ काम के दौरान कट चुका है और वह अब घर में ही रहता है. गांव और उसके आस-पास कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है, जहां डॉक्टर की देख-रेख में सुरक्षित प्रसव कराया जा सके. पारंपरिक दाईयां ही एक मात्र सहारा है. शहर की दूरी अधिक है और सड़क भी बेहद खराब है. इस 18 किलोमीटर दूर जिला अस्पताल तक पहुँचने में कम-से-कम एक घंटा लग जाता है. आपातकालीन स्थिति में एम्बुलेंस तो दूर कोई सवारी गाड़ी भी मुश्किल से मिल पाता है. हरेली की छुट्टी होने के कारण पिकअप वैन मिल गया वरना वह भी नहीं मिलता. गांव के अशोक यादव ने बताया कि गाँववालों का दर्द समझने वाला कोई नहीं है. वहां सुविधाएं नहीं हैं इसलिए शहर आना मजबूरी है, बीच में ही जान चली जाती तो कोई पूछता भी नही. शहर में घुसते समय ट्रैफिक पुलिस ने भी बड़ी मिन्नत के बाद पास होने दिया. महिला को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं के संबध में पूछने पर संतोष साहू ने बताया कि पहले बीपीएल का कार्ड बना था पर जांच के दौरान रद्द कर दिया गया, तब से दवाएं मिलनी बंद हो गईं थी.

बच्चे की तो मौत हो गई. प्रसूता की दोहरी पीड़ा अपनी जगह है. पर यह घटना सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए कई सवाल छोड़ गई है. जिले में रोज अनगिनत मौतें होती होंगी. आदमी उसे भाग्य का खेल मान लेता है. इसे भी मान लेगा. कुछ दिनों बाद लोग इसे भूल भी जाएंगे. लेकिन, क्या इस तरह की मौतों को भी  भाग्य का खेल मान लेना उचित है. अगर गांव में प्रसव की उचित व्यवस्था होती तो महिला को पिकअप वैन में जानवरों की तरह ढोकर जिला अस्पताल नहीं लाना पड़ता.  बच्चा बच  सकता था और प्रसूता को उतना कष्ट नहीं होता.भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था के कारण जो उपर से नीचे तक अव्यवस्था फैली हुई है, उसका खामियाजा अंतत: उन गरीब ग्रामीणों को भुगतना पड़ता है, जिनका इसमें कोई दोष नही. इसका समाधान होगा या इसी तरह सब चलता रहेगा; क्या है इसका समाधान?