गुरुवार, 13 मई 2010

नए मुख्य न्यायाधीश




न्यायमूर्ति जे. एस. कपाड़िया देश के 38वें मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किए
गये हैं। चौथे दर्जे की नौकरी से कैरियर की शुरुआत करनेवाले जस्टिस
कपाड़िया नें जीवन के कई पड़ाव देखे हैं। सनातन और बौद्ध धर्म का आपको
गहरा ज्ञान है।
इन्होनें ऐसे समय में पदभार ग्रहण किया है जब हमारी न्याय-प्रणाली कई
मोर्चों पर एक साथ जूझ रही है। जस्टिस दिनारन का मामला अभी सुलझा नहीं
है। वर्तमान में कई न्यायाधीशों पर आय से अधिक संपति के आरोप लगने भी
शुरु हो गए हैं। अपने वास्तविक उद्देश्य से भटकाव के वातावरण में हम
नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश से आशा करते हैं कि परिदृश्य में सकारात्मक
बदलाव होंगे। उनके संघर्षपूर्ण जीवन के अनुभव और ज्ञान का लाभ जनता को
मिलेगा।

रविवार, 9 मई 2010

लिखना शुरू करें

कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। हममें से ज्यादातर लोग लिखना तो चाहते हैं पर लिखते नहीं। हम सिर्फ इस डर से लिखना शुरू नहीं करते कि शायद अच्छा नहीं लिख सकेंगे। मजे की बात ये है कि हम साथ ही साथ ये सपना भी देख रहे होते हैं कि भविष्य में अच्छा लिखेंगे। बिना अभ्यास के ही हमें एक चमत्कार का इंतज़ार होता है कि हमारा पहला लेख ही सबसे बेहतर लेख होगा। परन्तु सच तो ये है कि जब कोई लिखेगा ही नहीं तो उसकी लेखन-कला में क्या खाक निखार होगा। क्या कोई जन्मजात लेखक होता है या कोई जादू की छड़ी है जो हमें एक ही बार में लिखना सिखा दे। बिना अभ्यास के कुछ नहीं सुधरता। फिर तो लिखना भी एक कला है, इसे सीखा भी निरंतर अभ्यास से ही जा सकता है। इसमें सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।
प्रख्यात चित्रकार और मूर्तिकार देवीलाल पाटीदार का मानना है कि ज्यादातर लोग इस मुगालते में जीते हैं कि आज की शाम वो ऐसी कविता, कहानी या निबंध लिखेंगे कि दुनिया अचंभित हो जाएगी। ऐसे लोग कला को एक ही तैयारी में किसी विशेष आयोजन की तरह समझते हैं और दुविधा में कुछ शुरु नहीं करते, टालते चले जाते हैं। बकौल पाटीदार यह प्रवृति ठीक वैसे ही है जैसे कोई व्यक्ति ये सोचकर बच्चे पैदा करे कि होने वाली बच्ची विश्व-सुंदरी होगी। वास्तविकता यह है कि कई प्रतिभागियों में से एक को विश्व- सुंदरी का खिताब मिलता है, इसी तरह हजारों- लाखों रचनाओं में कोई पुरस्कृत हो जाता है। सर्वश्रेष्ठ का सपना देखते हुए अकर्मण्य बने रहना कहाँ की बुद्धिमानी है।
हमें प्रकृति के इस नियम को समझना होगा कि सर्वश्रेष्ठ एक ही होता है पर बाकी सभी ख़राब नहीं होते। हमारे सोचने मात्र से कुछ अच्छा या बुरा नहीं हो जाता। हम मुगालते में जीकर पछतावा के अलावा कुछ हासिल नहीं करते। इसलिए हमें लिखने का काम लगातर करते रहना चाहिए। परिश्रम के अलावा कोई रास्ता नहीं। बिना अभ्यास के हम अच्छा नहीं लिख सकते। हम याद करें अपने बचपन को जब एक-एक चीज़ को काफी जद्दोजहद के बाद हम सीख पाते हैं। चलना, उठना, खाना, पीना सब के लिए लगातार उर्जा लगानी पड़ती है। वर्ण एवं मात्राएं सीखने के लिए कितना प्रयास करना पड़ता है, किसी से छिपा नहीं है।
हमारे मन-मष्तिष्क में नए-नए विचार आते रहते हैं। प्राय: हम इन्हें व्यक्त नहीं कर पाते। कई बातें हमारे मन को झकझोरती रहती हैं पर उसे मुँह से बोलकर बताना अच्छा नहीं जान पड़ता। स्थिति कई बार तो अवसाद का रूप ले लेती है। इसलिए न कही जाने लायक बातों का बोझ मन से निकालने का जरिया भी है कलम और काग़ज़। लिखी हुई बातें ज्यादा टिकाऊ और प्रभावी होती हैं। विशेषज्ञों का यह मानना है कि लिखने से मानसिक दबाव भी कम होता है। लिखी बातें भविष्य के लिए सुरक्षित भी रखी जा सकती हैं।
लिखने की कला का महत्व और भी बढ़ जाता है जब हम पत्रकारिता से जुड़े हों। लिखने के बदौलत ही तो पत्रकारों की रोटी का जुगाड़ होता है। अगर हमनें समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया तो पछतावे की कोई बात नहीं। जब जागो तभी सबेरा। मगर हाँ हम अगर अब भी नहीं चेते तो आगे का समय मश्किल भऱा हो सकता है। हो सकता है शुरुआत में बेहतर न लिख पाएँ पर निरंतर अभ्यास से सब ठीक हो जाएगा। किसी ने ठीक ही कहा हैः
करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान।।

बदल डालो

29 अप्रैल 1999 को देर रात एक पार्टी में शराब परोस रही मॉडल को गोली मार दी गई। हफ्ते भर के अंदर मुख्य आरोपी ने समर्पण कर दिया। अन्य अभियुक्त भी गिरफ्तार कर लिए गए। मामले में कई उतार-चढ़ाव आए, कई गवाह मुकरते चले गए और 21 फरवरी 2008 यानि करीब 9 साल बाद आरोपी मनु शर्मा को साक्ष्य के अभाव में रिहा कर दिया गया। गत 19 अप्रैल को अंतिम रूप से उसकी सजा को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है।
जेसिका की जान गई। परिवार वालों को जो तकलीफ हुई उसकी कीमत क्या मनु शर्मा की उम्रकैद से चुकता हो सकती है? मैं मानता हूँ, सजा तभी सार्थक है जब वह आने वाले समय में अपराध की मानसिकता रखने वाले को डरा सके। लेकिन इस लेटलतीफ फैसले से ऐसा कुछ होने वाला नहीं। ऐसे तो अपराध और सजा का खेल चलता रहेगा। कानून सिर्फ सजा देने की व्यवस्था करेगा, अपराध रोकने की कोई पहल नहीं होगी। ये तो हाईप्रोफाइल मामला था इसलिए मीडिया तक सक्रिय हुई और अंतत: न्याय दिलाने में सफल रही। देश में हजारों बहुओं की हर साल दहेज के लिए हत्या कर दी जाती है, सबको न्याय मिल पाता है क्या? बलात्कार के बाद हत्या की खबरें भी आम है। कितनों को अब तक फाँसी या उम्रकैद हुई है?
बात चाहे नारी अपराध की हो या लूट खसोट या घोटालों की, हर मामले में जितनी लेटलतीफी हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया में होती है उससे अपराधियों का मनोबल तो कहीं से नहीं घटता। कई बार तो यही अपराध आदमी को उपर उठाने में मदद करते हैं। हमारी संसद और विधानसभाओं में दागी जनप्रतिनिधियों की जो संख्या है वो यही तो बयान करती है। पार्टियाँ भी टिकटों का बँटवारा करते समय उसी को खड़ा करने में अपनी भलाई समझती हैं जिसकी छवि दादा टाइप हो, दो-चार मुकदमें चल रहे हों या और भी बहुत कुछ। पिछले दिनों राज्य-सभा के सांसदों पर आरोपों की खबरें आने लगीं। जब देश के कर्णधार ही ऐसे होंगे उस देश की कानून-व्यवस्था का तो भगवान ही मालिक है। जेसिका लाल, शिवानी भटनागर, प्रियदर्शिनी भट्ट तो अपवाद मात्र हैं। देश मे हजारों जेसिकाओं मीडिया नहीं पहुँच पाती और न्याय तो मुश्किल से।
विश्व के सबसे लोकतंत्र की यह हालत भविष्य में गर्त की ओर ले जाने वाली है। कई देशों के संविधान का पुट लेकर हमनें किया क्या जब एक-एक फैसले में इतने दिन लग जाते हैं। आरोपी अगर रसूखदार परिवार का हो तो सजा दिलाना टेढ़ी खीर। दिनों दिन अपराध बढ़ रहे हैं, इस पर लगाम लगाने का काम आम आदमी तो कर नहीं सकता। प्रशासन अपने काम में इतनी मजबूर क्यों दिखती है? जिस पुलीस-व्यवस्था को अंग्रेजों ने भारत के शोषण के लिए स्थापित किया था उसी की फोटो-कॉपी से आजाद भारत में काम चल रहा है। जनता तो त्रस्त होगी ही। वही शोषक न्याय व्यवस्था अब तक चल रही है तो आजाद देश का क्या मतलब? न्याय सिर्फ बड़े और ताकतवर लोगों की जागीर बनकर रह गई है। बापू, अंबेडकर के सपनों का भारत क्या यही है? सवाल तो कई हैं पर जवाब भी आने शुरू हो गए हैं। जब स्थिति बद से बदतर हो जाए तो आमूल-चूल परिवर्तन की जरुरत होती है। एक फैसले से खुश ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है।
आजादी के समय स्थिति कुछ और थी आज दुनिया काफी बदल चुकी है। अब तक के समय को संविधान के एक्सपेरिमेंट का वक्त मानकर समग्र बदलाव के लिए सोचने का वक्त आ गया है। देश में विचारकों की कमी नहीं है। यहाँ से निकलकर लोग विश्व में झंडा गाड़ रहे हैं। अपने देश में उन्हें माहौल नहीं मिलता। प्रतिभा का सम्मान यहाँ नहीं होता तो उपयोग भी तो वहीं होगा जहाँ उसको इज्जत मिलेगी। फिर हमारे ही लोग दूसरों के काम नहीं आएंगे तो और क्या होगा? कुल मिलाकर इस रक्तहीन-क्रांति के लिए हर खास ओ आम को तैयार होने और अपने-अपने स्तर से कोशिश करने की जरूरत है।
और अब अंत में जेसिका के परिजनों के जज्बे को सलाम जो जिन्होने ऐसी व्यवस्था में हिम्मत नहीं खोई।

घर का भेदी लंका ढाए

-पंकज साव
गत सप्ताह घटित हुई दो बड़ी घटनाओं ने वाकई हमारी आंतरिक और साथ ही साथ बाह्य सुरक्षा-व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। इसमें एक बड़ी घटना है पाकिस्तान में पदस्थापित राजनयिक माधुरी गुप्ता की गिरफ्तारी। माधुरी गुप्ता कितनी दोषी हैं, यह तो अदालत तय करेगी पर इस गिरफ्तारी ने आम भारतीयों की नज़र में जो दुराग्रह पैदा किया है, वह खतरनाक है। देश का हर नागरिक चाहे लाख बुरा हो, सुरक्षा के मामले में एक हो जाता है। अब जब हमारे उच्चायोगों में बैठे विदेश-सेवा के अधिकारियों की ऐसी दागदार छवि बनेगी तो इसका सीधा असर आम आदमी की राष्ट्रीय निष्ठा पर पड़ेगा।
इसका एक बुरा असर भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और साख पर भी पड़ेगा। हम लाख अपनी देशभक्ति की डींगें हाँक लें। ऐसी एक घटना सारे किए कराए पर पानी फेर देगी। अब हम किस मुँह से दुश्मन देशों पर आरोप लगाएंगे जब अपने ही रखवालों का दामन ही दागदार हो गया। चाहे पाकिस्तान में लोग भूखों मरें पर वह द्वेष में इतना पागल है कि भारत के विरुद्ध साम, दाम, दण्ड, भेद सब उपायों का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आने वाला। हमारी विदेश-सेवा तक उसकी पहूँच उसकी भेद की नीति का ही परिणाम है। एक दूसरी बड़ी घटना है उत्तर प्रदेश में नक्सलियों को हथियार सप्लाई करने वाले रैकेट का खुलासा। यहाँ भी हमारे रक्षक ही भक्षक की भूमिका में हैं। इस मामले में पकड़े गए सारे अभियुक्त सीआरपीफ और पुलीस के जवान निकले। हो न हो पिछले दिनों दंतेवाड़ा में मारे गए जवानों पर चलने वाले हथियार उसी सीआरपीएफ के कुछ गद्दार जवानों की सप्लाई की हुई हो।
कुल मिलाकर स्थिति बड़ी ही विकट है। ऐसे अपराध कहीं से क्षम्य नहीं हैं। माधुरी गुप्ता जिस तरह झूठी दलीलें दे रही हैं, उनमें दम नहीं है। कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए खुफिया सूचनाएँ लीक कर दे कि उसका बॉस उसका प्रमोशन नहीं दे रहा है, सही नहीं है। इधर अगर दोंषी जवानों के मामले में भी ढील दी गई तो ऐसे लोगों का मनोबल ही बढेगा। दोनों ही प्रकरणों की गंभीरता को देखते हुए सटीक जाँच कर जल्द से जल्द दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए ताकि इस तरह के अपराध आम घटना का रूप न ले सके।




इसका एक बुरा असर भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और साख पर भी पड़ेगा। हम लाख अपनी देशभक्ति की डींगें हाँक लें। ऐसी एक घटना सारे किए कराए पर पानी फेर देगी। अब हम किस मुँह से दुश्मन देशों पर आरोप लगाएंगे जब अपने ही रखवालों का दामन ही दागदार हो गया। चाहे पाकिस्तान में लोग भूखों मरें पर वह द्वेष में इतना पागल है कि भारत के विरुद्ध साम, दाम, दण्ड, भेद सब उपायों का इस्तेमाल करने से बाज नहीं आने वाला। हमारी विदेश-सेवा तक उसकी पहूँच उसकी भेद की नीति का ही परिणाम है। एक दूसरी बड़ी घटना है उत्तर प्रदेश में नक्सलियों को हथियार सप्लाई करने वाले रैकेट का खुलासा। यहाँ भी हमारे रक्षक ही भक्षक की भूमिका में हैं। इस मामले में पकड़े गए सारे अभियुक्त सीआरपीफ और पुलीस के जवान निकले। हो न हो पिछले दिनों दंतेवाड़ा में मारे गए जवानों पर चलने वाले हथियार उसी सीआरपीएफ के कुछ गद्दार जवानों की सप्लाई की हुई हो।
कुल मिलाकर स्थिति बड़ी ही विकट है। ऐसे अपराध कहीं से क्षम्य नहीं हैं। माधुरी गुप्ता जिस तरह झूठी दलीलें दे रही हैं, उनमें दम नहीं है। कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए खुफिया सूचनाएँ लीक कर दे कि उसका बॉस उसका प्रमोशन नहीं दे रहा है, सही नहीं है। इधर अगर दोंषी जवानों के मामले में भी ढील दी गई तो ऐसे लोगों का मनोबल ही बढेगा। दोनों ही प्रकरणों की गंभीरता को देखते हुए सटीक जाँच कर जल्द से जल्द दोषियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए ताकि इस तरह के अपराध आम घटना का रूप न ले सके।